*नवरात्रि पर्व का वैज्ञानिक आधार*
कृष्णा पांडे की खबर,
नवरात्रि पर्व साल में दो बार मनाये जाने वाला भारतीय पर्व है , जो सृष्टि के आदिकाल से मनाया जाता रहा है । एक नवरात्रि अश्वनि नक्षत्र यानी शारदीय नवरात्रि और दूसरा चैत्र नवरात्रि होती है।
*पौराणिक मान्यताः*- भगवान श्रीराम ने रावण से युद्ध करने से पहले अपनी विजय के लिए दुर्गापूजा का आयोजन किया था। वह माँ के आर्शीवाद के लिए इतंजार नहीं करना चाहते थे इसलिए उन्होंने दुर्गापूजा का आयोजन किया और तब से ही हर साल दोबार नवरात्रि का आयोजन होने लगा। कहा जाता है कि इन दिनों में मन से माँ दुर्गा की पूजा करने से हर मनोकामनाएं पूरी होती है।
नवरात्रि में कन्याओं को देवी का स्वरुप मानकर हम उनकी पूजा करते हैं इन दिनों में शक्ति के नौ रूपों की पूजा अर्चना की जाती है इसलिए इस त्योहार को नौ दिनों तक मनाया जाता है और दशमी के दिन दशहरा के नौ रूप में भी मनाया जाता है !
नवरात्रि पर्व की वास्तविकता का *विश्लेषणः*- नवरात्रि हमेशा दो मुख्य मौसमों के संक्रमण काल में आती है। यानि जब सर्दी के बाद गर्मी शुरु हो रही होती है तब चैत्र मास में और दूसरे जब गर्मी- वर्षा के बाद सर्दी शुरु हो रही होती है तब।
1. जाड़े के बाद।
2. वर्षा के बाद।
ये ही वो समय हैं जब हमारे बीमार पड़ने के ज्यादा अवसर रहते हैं। आपने देखा होगा डाक्टरों के यहाँ इसी समय सबसे ज्यादा मरीजों की भीड़ होती है ।
ऋतु परिवर्तन के दो मास बीतने वाले के अंतिम 7 दिन और आने वाले के प्रथम 7 दिन इस 14 दिन के समय को ऋतु संधि कहते हैं । इनके दोनों नवरात्रों यानी जाड़े और वर्षा ऋतु के बाद जब ऋतु परिवर्तन होता है यानी ऋतु संधिकाल होता है हमारी सभी अग्नि जठराग्नि और भूताग्नि कम होने के साथ-साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी कमी आ जाती है और प्राप्त भोज्य सामग्री के दूषित होने की संभावना अधिक होती है। इन कारणों के चलते इस ऋतुसंधिकाल और इसके आसपास के समय में विभिन्न रोग होने की संभावना बेतहासा बढ़ जाती है। आप लोगों ने देखा भी होगा आजकल इस मौसम में ज्वर अतिसार आंत्र ज्वर, पेट में जलन, खट्टी डकार, डेंगू, बुखार, मलेरिया. वायरल बुखार, एलेर्जी आदि-आदि कितने रोग पैदा हो जाते है।
*नवरात्र एक आयुर्वेदिक पर्व है*
इस प्रथा के पीछे एक बड़ा आयुर्वेदीय वैज्ञानिक और स्वास्थ्य सम्बंधित तथ्य छिपा है । नवरात्रि हमेशा दो मुख्य मौसमों के संक्रमण काल में आती है। एक नवरात्रि अश्वनि नक्षत्र यानी शारदीय नवरात्र और दूसरा चैत्र नवरात्रि होती है। नवरात्रि होने के पीछे कुछ आध्यात्मिक, प्राकृतिक, वैज्ञानिक कारण माने जाते हैं। दोनों ही नवरात्रि का अपना एक अलग महत्व होता है।
प्राकृतिक आधार पर नवरात्रि को देखें तो ये ग्रीष्म और सर्दियों की शुरुआत से पहले होती है। प्रकृति के परिर्वतन का ये जश्न होता है। वैज्ञानिक रूप से मार्च और अप्रैल के बीच सितंबर और अक्टूबर के बीच दिन की लंबाई रात की लंबाई के बराबर होती है।वैज्ञानिक आधार पर इसी समय पर नवरात्रि का त्यौहार मनाया जाता है।
*आयुर्वेद दो सिद्धांतों पर कार्य करता है*
1. मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा।
2. रोगी के रोग की चिकित्सा।
जब नवरात्रि पर्व और इसको मनाने की बात आती है तो मुख्यत तीन शब्द सामने आते है: नवरात्रि व्रत, साथ में उपवास व जागरण, नौ दिन आदि शब्द भी। इसलिए इनके वास्तविक अर्थ पर ध्यान देना चाहिए।
1.*नौ रात्रियों का तात्पर्य*?
नौ रात्रियों का वैदिक साहित्य में सुन्दर वर्णन है। ‘‘नवद्वारे पुरेदेहि‘‘ इसका तात्पर्य है नौ दरवाजों का नगर ही हमारा शरीर है। शरीर में नौ द्वार होते है – दो कान, दो आंखंे, दो नासाछिद्र, एक मुख और दो उपस्थ इन्द्रि (मल द्वार मूत्र द्वार) इस प्रकार शरीर में नौ द्वार है। नौ द्वारांे में जो अंधकार छा गया है, हमें अनुष्ठान करते हुए एक-एक रात्रि में, एक-एक इन्द्रियों के द्वार के ऊपर विचारना चाहिए कि उनमें किस-किस प्रकार की आभाएँ हैं तथा उनका किस प्रकार का विज्ञान है? इसी का नाम नवरात्रि है।
2. *जागरण का अभिप्राय*: यहाँ रात्रि का का तात्पर्य है अंधकार। अंधकार से प्रकाश में लाने को ही जागरण कहा जाता है। जागरण का अभिप्राय यह है कि जो मानव जागरूक रहता है उसके यहाँ रात्रि जैसी कोई वस्तु नहीं होती। रात्रि तो उनके लिए होती है जो जागरूक नहीं रहते। अतः जो आत्मा से जागरूक हो जाते है वे प्रभु के राष्ट्र में चले जाते हैं और वे नवरात्रियों में नहीं आते।
माता के गर्भस्थल में रहने के जो नवमास है वे रात्रि के ही रूप है क्योंकि वहाँ पर भी अंधकार रहता है, वहाँ पर रूद्र रमण करता है और वहाँ पर मूत्रों की मलिनता रहती है । उसमें आत्मा नवमास, वास करके शरीर का निर्माण करता है। वहाँ पर भयंकर अंधकार है। अतः जो मानव नौ द्वारों से जागरूक रहकर उनमें अशुद्धता नहीं आने देता वह मानव नव मास के इस अंधकार में नहीं जाता, जहाँ मानव का महाकष्टमय जीवन होता है। वहाँ इतना भयंकर
अंधकार होता है कि मानव न तो वहाँ पर कोई विचार-विनिमय कर सकता है, न ही कोई अनुसन्धान कर सकता है और न विज्ञान में जा सकता है। इस अंधकार को नष्ट करने के लिए ऋषि-मुनियों ने अपना अनुष्ठान किया। गृहस्थियों में पति-पत्नी को जीवन में अनुष्ठान करने का उपदेश दिया। अनुष्ठान में दैव-यज्ञ करे, दैव-यज्ञ का अभिप्राय है यह है कि ज्योति को जागरूक करे। दैविक ज्योति का अभिप्राय यह है कि दैविक ज्ञान-विज्ञान को अपने में भरण करने का प्रयास करे। वही आनंदमयी ज्योति, जिसको जानने के लिए ऋषि-मुनियों ने प्रयत्न किया। इसमें प्रकृति माता की उपासना की जाती है, जिससे वायुमंडल वाला वातावरण शुद्ध हो और अन्न दूषित न हो। इस समय माता पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की वनस्पतियाँ परिपक्व होती है। इसी नाते बुद्धिजीवी प्राणी माँ दुर्गे की याचना करते है अर्थात प्रकृति की उपासना करता है कि हे माँ ! तू इन ममतामयी इन वनस्पतियों को हमारे गृह में भरण कर दे
*नवरात्रि पर्व पर नौ दिन के व्रत के पीछे का वैज्ञानिक कारण*: हमारे शरीर में स्थित नौ द्वार है- आँख, नाक, कान, द्वार, मुँह, गुदा एवं मूत्राशय ये नौ द्वार हमको स्वास्थ्य रखने में मदद करते है बहार से रोग के जीवाणु को शरीर में प्रवेश करने से रोकते है अच्छी वायु का सेवन करते है और शरीर से गंन्दी वायु और मलमूत्र को बाहर निकलते है सभी नौ द्वारों को शुद्ध रखना जरुरी है दूसरे एक ऋतु से शरीर दूसरी ऋतु में प्रवेश करता है जिसके लिए शरीर के नौ द्वारों की मशीन को कुछ विश्राम देना जरुरी है नहीं तो मौसम बदलने के साथ नौ बीमारियों की सम्भावना हो जाती है।
इसलिए हमारे मनीषियों ने धार्मिक अनुष्ठान के साथ नौ दिन उपवास रखने का भी प्रावधान किया। इन नौ दिनों में यदि तरीके से केवल फलाहार करके उपवास कर लिया जाये तो शरीर से पिछले 6 महीने में एकत्रित विकार निकल जाते हैं और शरीर अगले 6 महीने के लिये स्वस्थ्य रहने के लिए तैयार हो जाता है।साथ में हम जो धार्मिक अनुष्ठान करते हैं उससे हमारी आत्मिक शुद्धि हो जाती है। यहाँ यह ध्यान रहे कि फलाहार यानि केवल (फल ़ आहार), ज्यादा से ज्यादा दूध बस। यदि आप फलाहार के नाम पे साबूदाने की खिचड़ी, कुट्टू के आटे की पूड़ियां, आलू और शकरकन्द का हलवा और खोवे की मिठाईयां खायेंगे तो उल्टा नुकसान होगा। उससे तो अच्छा है कि कोई व्रत न करके शुद्ध सात्विक हल्का भोजन कर लिया जाये।
इसलिए नौ दिन सात्विक भोजन करें जिसमें प्याज लहसुन मांस अंडा आदि भी ना हो कम भोजन करें मन को शांत और ईश्वर की प्रार्थना करें की हमारे शरीर की रक्षा करे यह नवरात्र व्रत व्यवस्था आयुर्वेद के प्रथम सिद्धांत पर कार्य करता है जिसमें उचित मात्रा में स्वच्छ व ताजा आहार करने को बताया है। जिससे हमारी पाचक अग्नि नष्ट न हो और रोग प्रतिरोधक क्षमता बनी रहे। नौ दिन की इस तपस्या के बाद १०वाँ दिन आता है जिसको दशहरा बोलते हैं दसवीं इन्द्री यानि दसवाँ है मन जिसने नौ इंद्रियों को हरा दिया इसलिए इस पर्व को दशहरा नवरात्र का व्रत कहते हैं।
*नवदुर्गा के अमूर्त रूप क्या है* ?
नवरात्रि कोई नव दुर्गा की नौ शक्तियों का कोई रूप नहीं हैं। शरद ऋतु की हल्की दस्तक के कारण हमारे आयुर्वेद के ज्ञाता ऋषि मुनियों ने कुछ औषधियों को इस ऋतु में विशेष सेवन हेतु बताया था। जिससे प्रत्येक दिन हम सभी उसका सेवन कर शक्ति के रूप में शारीरिक व मानसिक क्षमता को बढ़ाकर हम शक्तिवान ऊर्जावान बलवान व विद्वान बन सकें।
लेकिन इसका वास्तविक रूप विकृत कर अर्थ का अनर्थ ही कर दिया। हर दिव्यौषधि को एक शक्तिस्वरूपा कल्पित स्त्री का रूप दे दिया कल्पना में ही नौ शक्तिवर्धक औषधियों को स्त्री नाम देकर उनका वीभत्स आकार गढ़कर उन्हें मूर्त रूप में पूजना शुरू कर दिया।
*नवदुर्गा के अमूर्त रूप के रूपक औषधि जिनका हमें सेवन करना चाहिए*।
1 हरड़ 2 ब्राह्मी 3 चन्दसूर 4 कूष्मांडा 5 अलसी 6 मोईपा या माचिका 7 नागदान 8 तुलसी 9 शतावरी
*प्रथम*:- *शैलपुत्री यानि हरड़* – कई प्रकार की समस्याओं में काम आने वाली औषधि हरड़, हिमावती है यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है, जो सात प्रकार की होती है।
*द्वितीय*:- *ब्रह्मचारिणी यानि ब्राह्मी* यह आयु और स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली रूधिर विकारों का नाश करने वाली और स्वर को मधुर करने वाली है। इसलिए ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता है। यह मन व मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है और गैस व मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है।
*तृतीय*:- *चंद्रघंटा यानि चन्दुसूर* – चंद्रघंटा इसे चन्दुसूर या चमसूर कहा गया है। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के समान है। इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है जो लाभदायक होती है। यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभप्रद है इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली हृदय रोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है।
*चतुर्थ:* – *कुष्माण्डा यानि पेठा* – इस औषधि से पेठा मिठाई बनती हैं। इसलिए इसको पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं जो पुष्टिकारक वीर्यवर्धक व रक्त के विकार को ठीक कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत समान है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर हृदयरोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त एवं गैस को दूर करता है।
*पंचम*:- *स्कंदमाता यानि अलसी* यह औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त, कफ रोगों की नाशक औषधि है। अलसी, नीलपुष्पी, पावर्तती, स्यादुमा एवं क्षुमा। अलसी मधुरा तिक्ता स्त्रिग्धापाके कदुर्गरुः।। उष्णा दृष शुकवातन्धी कफ पित्त विनाशिनी है।
पष्ठम:- कात्यायनी यानि मोइया – इसे आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका इसके अलावा इसे मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह कफ, पित्त अधिक विकार व कंठ के रोग का नाश करती है।
*सप्तम*:- *कालरात्रि यानि नागदौन* – यह नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक सर्वत्र विजय दिलाने वाली मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली औषधि है। इस पौधे को व्यक्ति अपने घर में लगाने पर घर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यह सुख देने वाली और सभी विषों का नाश करने वाली औषधि है।
*अष्टम:-तुलसी* सात प्रकार की होती है- सफेद तुलसी काली तुलसी मरुता दवना कुढेरक अर्जक और षटपत्र। ये सभी प्रकार की तुलसी रक्त को साफ करती है व हृदय रोग का नाश करती है।
*नवम:-शतावरी -जिसे नारायणी* या शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल व वीर्य के लिए उत्तम औषधि है। यह रक्त विकार औरं वात, पित्त शोध नाशक और हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है। सिद्धिदात्री का जो मनुष्य नियमपूर्वक सेवन करता है। उसके सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते हैं।
नौ तरह की वह दिव्यगुणयुक्त महा औषधियाँ निस्संदेह बहुत ही प्रभावशाली व रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाली जिससे हम ताउम्र हर मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी स्वयं को ढालने में सक्षम हुआ करते थे और निरोगी बन दीर्घायु प्राप्त करते थे। इस आयुर्वेद की भाषा में नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित व साफ कर मनुष्य को स्वस्थ करतीं है। अतः मनुष्य को इन औषधियों का प्रयोग करना चाहिये ।
*व्रत का सही अर्थ अर्थ क्या है?*
व्रत का अर्थ भूखे रहना नहीं है। व्रत का एक अन्य अर्थ संकल्प /प्रतिज्ञा से भी है। व्रत का अर्थ यजुर्वेद में बहुत स्पष्ट रुप में बताया गया है। देखिए―
*अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।*
*इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि।। (यजु० 1/5)*
भावार्थ―हे ज्ञानस्वरुप प्रभो! आप व्रतों के पालक और रक्षक हैं। मैं भी व्रत का अनुष्ठान करुँगा। मुझे ऐसी शक्ति और सामथ्र्य प्रदान कीजिए कि मैं अपने व्रत का पालन कर सकूँ। मेरा व्रत यह है कि मैं असत्य-भाषण को छोड़कर सत्य को जीवन में धारण करूँगा।
इस मन्त्र के अनुसार व्रत का अर्थ हुआ किसी एक दुर्गुण, बुराई को छोड़कर किसी उत्तम गुण को जीवन में धारण करना।
सत्यनारायणव्रत का अर्थ है कि मनुष्य अपने ह्रदय में विद्यमान सत्यस्वरुप परमात्मा के गुणों को अपने जीवन में धारण करे। जीवन में सत्यवादी बने। मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन करे।
उपवास का अर्थ है―
*उप समीपे यो वासो जीवात्मपरमात्मयोः।*
*उपवासः स विज्ञेयो न तु कायस्य शोषणम्।। (वराहोपनिषद् 2/39)*
भावार्थ―जीवात्मा का परमात्मा के समीप होना, परमात्मा की उपासना करना, परमात्मा के गुणों को जीवन में धारण करना, इसी का नाम उपवास है। शरीर को सुखाने का नाम उपवास नहीं है।
प्राचीन साहित्य में विद्वानों, सन्तों और ऋषि-महर्षियों ने भूखेदृमरनेरुपी व्रत का खण्डन किया है। प्राचीन ग्रन्थों में न तो ‘सन्तोषी‘ के व्रत का वर्णन है और न एकादशी आदि व्रतों का विधान है।
महर्षि मनु ने लिखा है―
*पत्यौ जीवति या तु स्त्री उपवासव्रतं चरेत्।*
*आयुष्यं हरते भर्तुर्नरकं चैव गच्छति।।*
भावार्थ―जो स्त्री पति के जीवित रहते हुए भूखे-मरनारुप व्रत या उपवास करती है, वह पति की आयु को कम करती है और मरने पर स्वयं नरक को जाती है।
इस प्रकार भूखा-मरने वाले व्रत का भी सन्तों, ऋषि-मुनियों ने खण्डन किया है, आयुर्वेद की दृष्टि से भी आज जिस रुप में इन व्रतों को किया जाता है, उस रुप में ये व्रत शरीर को हानि पहुँचाते हैं। क्योंकि आजकल के व्रत ऐसे हैं कि दिन भर अन्न को छोड़कर कुछ न कुछ खाते रहो। इस प्रकार आयुर्वेद की दृष्टि से जो उपवास का लाभ पूरे दिन निराहार रहकर या अल्पाहार करके मिलना चाहिये था, वह नहीं मिल पाता (साप्ताहिक या पाक्षिक उपवास)।व्रत के बहाने हर समय मुँह में कुछ-न-कुछ ठूँसते जाने का नाम व्रत नहीं है।
पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय तथा एक मन―ये ग्यारह हैं। इन सबको अपने वश में रखना, आँखों से शुभ देखना, कानों से शुभ सुनना, नासिका से ‘‘ओ३म‘‘ का जप करना, वाणी से मधुर बोलना, जिह्वा से शरीर को बल और शक्ति देने वाले पदार्थों का ही सेवन करना, हाथों से उत्तम कर्म करना, पाँवों से उत्तम सत्सङ्ग में जाना, जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन करना―यह है सच्चा एकादशी-व्रत। इस व्रत के करने से आपके जीवन का कल्याण हो जाएगा। शरीर को गलाने और सुखाने से तो यह लोक भी बर्बाद हो जाएगा, मुक्ति मिलना तो दूर की बात है।
*दैव-यज्ञ द्वारा नवरात्रि की उपासना*:
वैदिक मंत्रों द्वारा अनुष्ठान करके यज्ञ में जो आहुति दी जाती है वे द्यूलोक को प्राप्त हो जाती है ! इस प्रकार नवरात्रि की उपासना की जाती है। प्रतिपदा से लेकर अष्टमी तक प्रकृति की गति चैत्र के महीने में शांत रहती है। इसलिए इसको गति देने के लिए तथा वायुमंडल को शोधन करने के लिए प्रत्येक मानव को यज्ञमयी ज्योति जागरूक करना चाहिए । इसका अनुष्ठान व्रती रहकर संकल्प के द्वारा जब यज्ञ करनेवाला यज्ञ करता है तो उस समय यह प्रकृति – माँ वसुंधरा बनकर अपने प्यारे पुत्रों को इच्छानुसार फल दिया करती है। ऊँचे कार्य का ऊँचा परिणाम या फल होता है।
दैव-यज्ञ करने से वायुमंडल जितना शोधित होता है , उतनी ही कृषक की भूमि पवित्र होती है और उतनी ही पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार कि औषधियाँ शोधित हो जाती है और पवित्र बन जाती है। इसीलिए यह अनुष्ठान किया जाता है ।
*पर्व विधि संक्षेप में*:
१. इन दिनों अलप भोजन करें और संभव हो तो एक समय उपवास जरूर करें। शाम को भोजन जल्दी सूर्यास्त से पहले कर लंे।
२. इन दिनों प्रत्येक दिन के हिसाब से इन ओषधियांे का सेवन करें
1 हरड़ 2 ब्राह्मी 3 चन्दसूर 4 कूष्मांडा 5 अलसी 6 मोईपा या माचिका 7 नागदान 8 तुलसी 9 शतावरी।
३. दैनिक यज्ञ करें और मौसम के अनुसार सामग्री तैयार करें।
४. इन्द्रियों को संयम में रखे, कोई तामसिक भोजन न करें, तथा काम, क्रोध आदि दोषों से बिल्कुल दूर रहंे, सूक्ष्म व्यायाम करंे।
५. रात्रि में भजन, धार्मिक चर्चा करें और इस प्रकार की चर्चा में भाग लें।
Sanjeev singh Address bhartiya nagar bilaspur 7000103836